विविध >> दूसरी आजादी सेवा दूसरी आजादी सेवाइला. आर. भट्ट
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"दूसरी आजादी" के लिए जूझने का नाम "सेवा" है। पहली आजादी यानि विदेशी हुकूमत से मुक्ति। वह थी राजनीतिक आजादी। आर्थिक आजादी पाना तो अभी बाकी ही था।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
‘‘दूसरी आजादी’’ के लिए जूझने का
नाम
‘‘सेवा’’ है। पहली आजादी यानी
विदेशी हुकूमत से
मुक्ति। वह थी राजनीतिक आजादी। आर्थिक आजादी पाना तो अभी बाकी ही था।
गांधी जी ने कहा था। किसी भी जनता के लिए राजनीतिक आजादी के साथ-साथ
आर्थिक आजादी उतनी ही अनिवार्य और महत्त्वपूर्ण है।
गरीबी तो किसी भी समाज का नैतिक पतन है। राजनैतिक बदलाव या तकनीकी सुधार से शोषण के दूर हो जाने का कोई आश्वासन नहीं होता। इसीलिए आजादी की प्राप्ति के बाद जनता आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बने यह बेहद महत्वपूर्ण था। पिछले पच्चीस सालों में ‘‘सेवा’’ ने इस काम को किया, जिसे मैं ‘‘दूसरी आजादी’’ के गाँधी संदेश को लोक सेवा जैसा मानती हूँ। स्वतन्त्र भारत में गरीबों एवं स्त्रियों को मताधिकार का मिलना ही भर पर्याप्त नहीं था।
वे चाहती थीं ‘‘आवाज’’ और ‘‘दृश्यता’’। यानी कि हमारी बात सुनी जानी चाहिए और हमारा अस्तित्व नजर आना चाहिए। पेट पालने के दैनंदित से वे बाहर आना चाहती थी। उन्हें तो नया सीखने का, नया करने का समान और पर्याप्त अवसर चाहिए था। वे सारे श्रमिक तो देश की मजदूर मुहिम से जुड़ना चाहते थे। दलित एवं अल्पसंख्यक कौंमें सीमावर्ती होकर नहीं रहना चाहती थीं वे प्रगति की मुख्यधारा में आना चाहती थीं। वे भी चाहते थे अपनी ‘‘आवाज’’ और ‘‘दृश्यता।
गरीबी तो किसी भी समाज का नैतिक पतन है। राजनैतिक बदलाव या तकनीकी सुधार से शोषण के दूर हो जाने का कोई आश्वासन नहीं होता। इसीलिए आजादी की प्राप्ति के बाद जनता आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बने यह बेहद महत्वपूर्ण था। पिछले पच्चीस सालों में ‘‘सेवा’’ ने इस काम को किया, जिसे मैं ‘‘दूसरी आजादी’’ के गाँधी संदेश को लोक सेवा जैसा मानती हूँ। स्वतन्त्र भारत में गरीबों एवं स्त्रियों को मताधिकार का मिलना ही भर पर्याप्त नहीं था।
वे चाहती थीं ‘‘आवाज’’ और ‘‘दृश्यता’’। यानी कि हमारी बात सुनी जानी चाहिए और हमारा अस्तित्व नजर आना चाहिए। पेट पालने के दैनंदित से वे बाहर आना चाहती थी। उन्हें तो नया सीखने का, नया करने का समान और पर्याप्त अवसर चाहिए था। वे सारे श्रमिक तो देश की मजदूर मुहिम से जुड़ना चाहते थे। दलित एवं अल्पसंख्यक कौंमें सीमावर्ती होकर नहीं रहना चाहती थीं वे प्रगति की मुख्यधारा में आना चाहती थीं। वे भी चाहते थे अपनी ‘‘आवाज’’ और ‘‘दृश्यता।
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